100 दिन : त्रिवेंद्र की ‘लकीर’ में अटके तीरथ!
‘सरकार’ शरीफ हैं मगर दमदार नहीं, ईमानदार हैं मगर धारदार नहीं . सरकार एक कदम आगे बढ़ाते हैं तो डेढ़ कदम पीछे लौट आते हैं . कहना कुछ चाहते हैं और कह कुछ और जाते हैं. ध्यान रहे, सरकार का मतलब सौ दिन पूरे कर चुके मुख्यमंत्री तीरथ सिंह से है. सरकार के जो सौ दिन ऐतिहासिक होने चाहिए थे उनमें से कुछ कोरोना से संक्रमित हो गए और बाकी पुरानी लकीर मिटाने की कोशिश में बीत गए.
सरकार को लगा कि पब्लिक में छा जाने का शार्टकट शायद यही है मगर अपनी ही सरकार की खिंची लकीर मिट भी नहीं पाई. न देवस्थानम बोर्ड भंग हो पाया और न जिला प्राधिकरण ही खत्म हो पाए.
पहले ही दिन से सरकार डगमगाते नजर आए. सरकार ने जो फैसले लिए भी, उनमें न होमवर्क नजर आया और न आत्मविश्वास . कुछ ऐसा बड़ा भी नहीं होता नजर आया जो कहा जाए कि इसलिए त्रिवेंद्र को हटाकर तीरथ को सरकार की कमान सौंपी गई.
त्रिवेंद्र की ही तरह तीरथ ने भी तमाम अहम महकमे खुद के पास रखे तो स्वास्थ्य महकमे को मंत्री उनके राज में भी नहीं मिला. जिन आईएएस अफसरों को लेकर त्रिवेंद्र पर सवाल उठते रहे तीरथ उनकी जड़ें भी नहीं हिला पाए
सलाहकारों को लेकर त्रिवेंद्र पर उंगलियां उठ रही थीं तो तीरथ भी सलाहकारों की नियुक्ति में सवाल से बच नहीं पाए.
बीते सौ दिन में सरकार जैसा तो कहीं कुछ लगा ही नहीं. सही मायनों में सरकार के ये 100 दिन तो जाने-अनजाने बस त्रिवेंद्र बनाम तीरथ होकर रह गए. मौजूदा हालात में नैनीताल उच्च न्यायालय द्वारा कोविड से निपटने संबंधी व्यवस्थाओं पर की गई वह तल्ख टिप्पणी सटीक बैठती है जिसमें कहा गया कि सरकार जनता का धोखे में रख रही है, गददी पर बैठे राजा को प्रजा के दुख का पता नहीं चलता.
सामान्य परिस्थतियों में किसी सरकार के कार्यकाल का मूल्यांकन केवल 100 दिन की परफारमेंस के आधार पर नहीं किया जा सकता, मगर सरकार जब खुद ही लाखों रूपया खर्च कर विज्ञापन के जरिए अपना सौ दिन का रिपोर्ट कार्ड दे रहे हैं तो मूल्यांकन होगा ही.
बात चुनावी साल की हो और बेहतर रिजल्ट देने के नाम पर नेतृत्व परिवर्तन किया गया हो तब सरकार की परफार्मेंस आंकने के लिए 100 दिन की अवधि बहुत होती है. सवाल यह है कि बीते सौ दिन में तीरथ जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरे या नहीं ?
आमजन में सरकार की लोकप्रियता बढ़ी या नहीं, अगर त्रिवेंद्र राज में कोई असंतोष था तो वह खत्म हुआ या नहीं ? अगर पार्टी के नेताओं और जनप्रतिनिधियों में कोई नाराजगी थी तो वह खत्म हुई या नहीं , राज्य की नौकरशाही निरंकुश थी तो उस पर अंकुश लगा या नहीं ?
भाजपा हाईकमान को अगर यह लग रहा था कि त्रिवेंद्र के रहते 2022 में वापसी नहीं होगी तो क्या तीरथ राज के 100 दिन में भाजपा की स्थिति सुधरी है ?
चलिए सरकार की लोकप्रियता से शुरू करते हैं.
यहां बता दें कि लोकप्रिय सरकारें न्यायालय में खड़ी नहीं रहतीं, बात-बात पर उन्हें न्यायालयों से फटकार नहीं पड़ती. वो सरकारें भी लोकप्रिय नहीं होती जिनके विरुद्व जनहित याचिकाएं लगती हैं.
सरकार लोकप्रिय तब होती है जब उसके फैसलों में व्यापक जनहित, मजबूत इच्छा शक्ति और दृढ़ता हो.
जयकारा उसी सरकार का लगता है जो जनता की नब्ज जानती हो, जिसके फैसलों में जन सहभागिता झलकती है और जो सुशासन देती है.
जहां तक तीरथ की लोकप्रियता का सवाल है तो इसमें कोई दोराय नहीं शुरूआती 100 दिन लोकप्रियता के तो कतई नहीं रहे. हां, इस बीच अपने बयानों को लेकर सोशल मीडिया में सर्वाधिक ट्रोल जरूर हुए.
उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास में यह पहली सरकार है जिसे इतना बड़ा जनादेश मिला. विडंबना देखिए कि प्रचंड बहुमत की सरकार भी लोकप्रिय नहीं हो पाई.
तीरथ लोकप्रिय होते अगर सियासत के जाल से बाहर निकलकर फैसले लेते, बेरोजगार युवाओं से संवाद करते, उन्हें हौसला देते.
राज्य की पारदर्शी रोजगार नीति तैयार कराते, खाली पड़े हजारों पदों पर नियुक्ति प्रक्रिया शुरू करते. युवाओं के लिए तीरथ नायक बन जाते अगर सरकारी नौकरी में ठेका प्रथा खत्म कर देते, वर्षों से रुकी भर्तीयां खोल देते, परीक्षाएं आयोजित करा देते, रूके हुए रिजल्ट जारी करा देते. तीरथ लोकप्रिय हो जाते अगर पारदर्शी स्थानांतरण नीति लागू कर दी जाती.
यह सही है कि तीरथ के सौ दिनों में आधे तो कोरोना की भेंट चढ़ गए मगर फिर भी वे चाहते तो संदेश दे सकते थे.
कोरानाकाल में महामारी से निपटने के लिए नर्सों की भर्ती करा देते, पैरा मेडिकल स्टाफ भर्ती कर देते, कोरोना संकट में खुली लूट मचा रहे अस्पतालों पर कड़ा एक्शन लेते, दवाओं और उपकरणों की काला बाजारी बंद करा देते, तो भी वे लोकप्रिय हो जाते . सचिवालय में बैठे निरंकुश अफसरों पर लगाम कसते और उन्हें फील्ड में उतारते, तो भी तीरथ संदेश देने में कामयाब हो पाते.
अब बात करते हैं कि हो क्या रहा है. यह समझने,समझाने के लिए बीते सौ दिनों में नैनीताल उच्च न्यायालय की सरकार पर की गई टिप्पणियां ही काफी हैं. आए दिन सरकार को उच्च न्यायालय की फटकार लग रही है. सरकार को यह फटकार ऐसे ही नहीं लग रही बल्कि उसके रवैये के कारण लग रही हैं. सरकार के आला अफसर उच्च न्यायालय में सरकार का सही से पक्ष तक नहीं रख पा रहे हैं.
प्रदेश के स्वास्थ्य सचिव की ओर से दाखिल एक शपथ पत्र पर तो मुख्य न्यायाधीश ने नाराजगी व्यक्त करते हुए यह तक कहा कि इससे घटिया शपथ पत्र उन्होंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा. अब या तो अफसर जानबूझकर कर रहे हैं और या फिर वाकई नौकरशाह नकारा हैं. बहरहाल दोनो ही स्थितियां गंभीर और चिंताजनक हैं.
अब सवाल आता है कि तीरथ के 100 दिन में नेतृत्व परिवर्तन का फैसला जायज साबित हुआ या नही ? इसका सही आकलन तो भाजपा हाईकमान ही कर सकता है लेकिन इतना जरूर है कि सरकार के अंदर तीरथ बनाम त्रिवेंद्र चल रहा है.
सच तो यह है कि सरकार में नेतृत्व परिवर्तन जनता के लिए तो हुआ नहीं था, यह तो उन असंतुष्टों और विघ्नसंतोषियों के लिए हुआ जिनके मंसूबे त्रिवेंद्र राज में पूरे नहीं हो पा रहे थे. आम जनता या प्रदेश का इस नेतृत्व परिवर्तन से क्या फायदा हुआ, कुछ नहीं. प्रदेश को तो संकटकाल के दौरान भी एक अदद स्वास्थ्य मंत्री तक नहीं मिल पाया. फायदा उन मंत्रियों को हुआ जो त्रिवेंद्र राज में अपनी मनमानी नहीं कर पा रहे थे,
फायदा उन्हें हुआ जो चार साल से सचिवालय के चतुर्थ तल और मुख्यमंत्री आवास में घुसपैठ नहीं जमा पा रहे थ. फायदा उन बिचैलियों का हुआ जिनकी दुकानें बंद पड़ी थीं, फायदा उनका हुआ जिन्हें लूट की खुली छूट नहीं थी.
देखिये अब हो रही है न मनमानी ! सरकार को पता ही नहीं और मंत्री जी हरिद्वार में अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट के लिए डीएम को जमीन ढूंढने के निर्देश दे रहे हैं. पिछली सरकार में घोटालों की जांच के लिए नियुक्त जांच अधिकारी बदल दिए जा रहे हैं. श्रम विभाग के अंतर्गत बोर्ड में क्या घमासान मचा है, वो खबरों की सुर्खियां बना ही है. सरकार में शामिल कांग्रेस पृष्ठभूमि के मंत्रियों को पिछले सौ दिन में मंत्री होने का ‘अहसास’ होने लगा है. जो मंत्री कल तक सांस थामे हुए थे, आज पावर फुल और फुल फार्म में नजर आ रहे हैं.
मुख्यमंत्री में आत्मविश्वास भले ही नजर नहीं आ रहा है लेकिन तीरथ राज में मंत्री आत्मविश्वास से लबरेज हैं. त्रिवेंद्र राज में जिनकी सरकार में एंट्री बैन थी, उनसे मंत्री खुलकर सार्वजनिक मुलाकातें कर रहे हैं. वही मंत्री त्रिवेंद्र के मशविरों बयानों को सरकारी प्रवक्ता के तौर पर खारिज कर रहे हैं. भाजपा नेताओं की जुबां में कहें तो फायदा तो अभी तक गैर-भाजपाईयों का ही हुआ, भाजपा का आम कार्यकर्ता तो पहले भी ठगा सा था और अभी भी ठगा सा ही है . लंबे इंतजार के बाद जिन्हें थोड़ा सम्मान मिला भी सौ दिन से तो वो भी अपमानित महसूस कर रहे हैं.
यह सही है कि त्रिवेंद्र से नाराजगी थी, लेकिन यह भी उतना ही सही है कि उन्हें हटाने का दबाव जनता का नहीं था. अंदरूनी कलह में तीरथ मुख्यमंत्री बनाए गए तो कहा गया कि हालात अब सुधर जाएंगे. लेकिन नेतृत्व परिवर्तन के बाद तो स्थितियां और भी चिंताजनक हैं. सरकार ठोस फैसले ही नहीं ले पा रही है, पिछले मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार के फैसलों पर अघोषित रोक लगी है.
सवाल उठने लगे हैं कि आखिर नेतृत्व परिवर्तन क्यों किया गया ? किसे क्या हासिल हुआ, इस बदलाव से क्या राज्य का भला हुआ और क्या भाजपा का ? सवाल वाजिब भी हैं क्योंकि यह साफ नजर आ रहा है कि ‘सरकार के चार साल -बातें कम काम ज्यादा’ से ‘सबका साथ-सबका विकास’ के बीच यह राज्य आज कहां खड़ा है ?
नया कुछ हो नहीं रहा है और त्रिवेंद्र राज में जो भी कुछ शुरू हुआ, चाहे विकास योजनाएं हो या सरकार की घोषणाएं, सब हाशिए पर हैं. सरकार के पुराने फैसलों को नए चश्में से देखा जा रहा है. तमाम महकमों में जहां-जहां त्रिवेंद्र की छाप है उन्हें मिटाने, बदलने की कोशिश हो रही है. जिनकी कल तक मनमानी नहीं हो रही थी कि उनकी तूती बोल रही है.
अगर नेतृत्व परिवर्तन इस लिए किया गया कि पुरानी सरकार गलत फैसले ले रही थी, जैसा कि नए मुख्यमंत्री ने आते ही कुछ फैसलों को पटलने की घोषणा भी की. अपने पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सिंह रावत के कुछ विवादित फैसलों को पलट कर मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने सुर्खियां जरूर बटोरी लेकिन उन फैसलों पर अब तक अमल न करा पाने के चलते अब उन पर सवाल उठने लगे हैं.
बात चाहे देवस्थानम बोर्ड की हो या जिला प्राधिकरणों की घोषणा वापस लिए जाने की बात हो, दोनों ही मुद्दों पर आज भ्रम की स्थिति बनी हुई है. यही नहीं मालूम की सरकार आखिर करना क्या चाहती है ?
बात देवस्थानम बोर्ड से ही शुरू करें तो सत्ता में आने के बाद तीरथ सिंह रावत ने कहा कि देवस्थानम बोर्ड खत्म किया जाएगा, बाद में कह दिया कि इसके बने रहने पर पुनर्विचार किया जाएगा. प्रचारित यह हुआ कि देवस्थानम बोर्ड खत्म कर दिया गया है . खूब होली,दीवाली मनाई, तीरथ ने इस पर शाबाशी भी ली और बधाई भी बटोरी, मगर 100 दिन बाद आज स्थिति क्या है ?
देवस्थानम बोर्ड जस का तस अस्तित्व में है. भ्रम की स्थिति यह है कि एक ओर सरकार बोर्ड पर पुनर्विचार करने की बात दोहराती है और दूसरी ओर मुकेश अंबानी के बेटे के साथ ही दो और उद्योगपतियों को देवस्थाम में बतौर सदस्य नामित कर देती है. भ्रम की इसी स्थिति के बीच धामों में बोर्ड ने अपना दखल शुरू कर दिया है, बोर्ड पर परंपराओं को खंडित करने के आरोप भी लगने लगे हैं.
ऐसी ही स्थिति जिला प्राधिकरणों को लेकर भी है. मुख्यमंत्री बनने के बाद तीरथ सिंह रावत ने जिला प्राधकरणों को खत्म करने का ऐलान किया. इस ऐलान पर भी सरकार ने खूब सुर्खिया बटोरी लेकिन सौ दिन बाद भी न तो प्राधिकरण खत्म हुए और न इस पर स्थिति स्पष्ट हुई.
तीरथ की इस घोषणा पर शासनादेश तो जारी हुआ मगर प्राधिकरण खत्म करने का नहीं बल्कि यह कि नए क्षेत्रों को प्राधिकरणों में शामिल नहीं किया जाएगा. सरकार ने यह फैसला बिना सोचे समझे लिया और इसका फायदा हुआ जमीन के सौदागरों और प्रदेश के बाहर से आकर यहां जमीनों में कालाधन खपाने वाले कारोबारियों को.
यह सही है कि जिला प्राधिकरण के कारण राज्य के छोटे किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वालों ग्रामीणों को परेशानी हो रही थी. उन्हें अपने लिए घर, गौशाला और दुकान बनाने तक के लिए प्राधिकरण के चक्कर काटने पड़ रहे थे, लेकिन यह भी सही है कि मैदानी जिलों के ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि खरीदकर वहां कालेधन से होटल, फार्म और रिजार्ट बनाने वालों के मंसूबे पूरे नहीं हो रहे थे. जमीन के सौदागर और भू-माफिया भी परेशान थे. प्राधिकरण में आने से सभी को भू-उपयोग के मुताबिक नक्शा पास कराना जरूरी था. दरकार तो ऐसे फैसले की थी जिससे स्थानीय ग्रामीणों को राहत पहुंचती और अनियमित, अनियोजित व्यवसायिक गतिविधियों पर रोक भी लगती, मगर सरकार ऐसा कोई रास्ता ही नहीं निकाल पाई. उल्टा अब तीरथ कैबिनेट ने यह निर्णय किया है कि जो नए क्षेत्र नक्शा पास नहीं कराना चाहते हैं उन्हें इसके लिए मजबूर नहीं किया जाएगा.
समझ नहीं आता कि आखिर यह किस तरह का निर्णय है ? प्राधिकरणों की जरूरत आखिर किस लिए होती है ? अवैध निर्माणों पर नियंत्रण लगाने के लिए, उन पर नकेल कसने के लिए, लेकिन अब सरकार ने नक्शा मंजूर करने की बाध्यता खत्म कर अवैध निर्माणों की खुली छूट दे दी है. निर्णय तो आम जनता के हितों को देखते हुए लेना था लेकिन हुआ इसके ठीक उलट. सरकार ने इस फासले के जरिए अबैध कब्जा करने वाले धन्ना सेठों को लूट की खुली छूट दे दी है.
इसी तरह कार्यदायी एजेंसी यूपीआरएनएल के मामले में भी तीरथ सरकार ने गजब का यू टर्न दिखाया है. तीरथ सरकार ने हाल ही में निर्णय लिया है कि अल्मोड़ा मेडिकल कालेज के बचे हुए कामों के साथ ही अन्य पिछले कामों को यूपीआरएनएल पूरा करेगी. यूपीआरएनएल वहीं एजेंसी है जिसे उनकी पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सरकार ने अनियमितताओं के चलते ब्लैक लिस्टेड करते हुए और नए काम देने पर रोक लगा दी थी. तीरथ सरकार के इस फैसले को लेकर असमंजस बना हुआ है.
ऐसा लगता है कि तीरथ सरकार ने इस फैसले के जरिए यूपीआरएनएल को मेडिकल कालेज से जुड़े कुछ और काम देने का रास्ता खोला है. क्योंकि अगर फैसला इतना ही है कि यूपीआरएनएल सिर्फ अपने अधूरे कामों को पूरा करेगा तो इसमें नया क्या है, यह निर्णय तो त्रिवेंद्र सरकार पहले ही ले चुकी थी.
तनौकरशाही पर नियंत्रण की बात करें तो सौ दिन में मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत नौकरशाही का तिलिस्म नही तोड़ पाए. सौ दिनों के दौरान नौकरशाही में फेरबदल की कई लिस्टें निकली मगर हर लिस्ट खोदा पहाड़ और निकली चूहिया साबित हुई. तीरथ के मुख्यमंत्री बनने के दिन से ही यह सुगुबुगाहट है कि बड़ा प्रशासनिक फेरबदल होगा, जिलों में जिलाधिकारी, पुलिस कप्तान और प्राधिकरणों के वीसी बदले जाएंगे लेकिन सौ दिन बाद भी यह बदलाव सिर्फ हवाओं में है. सरकार यह भी साफ नहीं कर रही है कि किसी तरह का प्रशासनिक बदलाव नहीं होगा.
सरकार के इस अस्पष्ट रवैये के चलते तमाम जिलों में प्रशासनिक व्यवस्था ठप पड़ी है. अधिकारी वेट एड वॉच की स्थिति में हैं. प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही के स्तर पर भी स्थितियां चिंताजनक हैं. पिछली सरकार के दौरान जिस तरह कुछ नौकरशाह सत्ता की धुरी बने हुए थे, उसके चलते सरकार की खूब किरकिरी हुई थी. तीरथ के कमान संभालने के बाद माना जा रहा था कि ऐसे अफसरों को हटा कर वे नई कार्य संस्कृति की राह तैयार करेंगे लेकिन तीरथ सिंह रावत ने ऐसा करने के बजाय सलाहकारों के जरिए समानांतर सत्ता स्थापित करने का काम किया.
इससे यही साबित होता है कि न तो उन्हें इन अफसरों पर भरोसा है और न ही उनके पर कतरने की हिम्मत. हां, ‘एक्शन‘ के नाम पर इन 100 दिनों में सरकार ने एकमात्र अधिकारी मेहरबान सिंह बिष्ट को लगातार इधर से उधर जरूर किया. बता दें कि मेहरबान सिंह बिष्ट त्रिवेंद्र सिंह रावत के करीबी अफसरों में शुमार थे और कुछ आला अफसरों की आंख की किरकिरी बने हुए थे.
अब बात करते हैं कोरोना महामारी की. कोरोना महामारी ने इस संकट भरे दौर ने भी तीरथ सरकार के 100 दिन की असफलता जाहिर कर दी है. तीरथ सरकार न तो कोरोना संक्रमण रोकने के लिए कारगर कदम उठा सकी, न अस्पतालों में सुविधाएं दुरुस्त कर सकी और न ही वैक्सीनेशन के मोर्चे पर प्रभावी काम कर सकी. इसके अलावा प्राइवेट अस्पलातों की लूट को भी तीरथ सरकार रोकने में नाकाम रही.
उल्टा सरकार ने कोरोना की ‘आपदा’ को प्राइवेट अस्पतालों के लिए ‘अवसर’ में तब्दील करने का काम किया. तीरथ सरकार ने फैसला लिया कि विधायक निधि के जरिए प्राइवेट अस्पतालों के लिए भी खरीद की जा सकती सकती है. यह खुली लूट का रास्ता तैयार करने जैसा था.
इसी कोरोना काल में अस्पतालों की बदहाली और सरकार के बदइंतजामों को लेकर तो नैनीताल उच्च न्यायालय ने एक से ज्यादा बार गंभीर टिप्पणियां की. हाइकोर्ट ने सरकार की तुलना रेत में मुंह छुपाए शुतुर्मुर्ग से करते हुए कहा कि कोरोना के खिलाफ सरकार की निष्क्रियता हैरान करने वाली है.
जिस हरिद्वार कुंभ के आयोजन को तीरथ अपनी उपलब्धि बता रहे हैं , उसी कुंभ में कोरोना टेस्टिंग के बड़े फर्जीवाडे को लेकर सरकार आज कटघरे में है . इस बीच बीते सौ दिनों में जो त्रिवेंद्र बनाम तीरथ हुआ है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता .
बहरहाल सौ दिन की तीरथ सरकार अगले सौ दिन और काटेगी इस पर भी सियासी गलियारों में सुगबुगाहट होने लगी है . खबर तो यहां तक है कि तीरथ उपचुनाव नहीं लड़ाया जाएगा . विज्ञापनों के लॉलीपॉप ने अभी इसे खबरों की सुर्खियों में आने से जरूर रोका हुआ है मगर सच्चाई यह है कि तीरथ की सियासी राहें आगे बहुत आसान नहीं हैं.
ये पूरा का पूरा लेख वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट जी की फेसबुक वॉल से लिया गया है