कुमाऊं, मैदान और हरीश रावत ये तीन नाम आज सिर्फ असंतोष के प्रतीक नहीं, बल्कि कांग्रेस के खोते जनाधार की चेतावनी बन चुके हैं!
उत्तराखंड कांग्रेस की नई संगठनात्मक टीम के ऐलान के बाद पार्टी के भीतर उबाल की स्थिति है।
जहाँ कांग्रेस आलाकमान इसे “नई ऊर्जा और नई शुरुआत” बता रहा है, वहीं जमीनी स्तर पर कुमाऊं, मैदानी जिलों और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की अनदेखी से कार्यकर्ताओं और समर्थकों में गहरा असंतोष पनप गया है।
पार्टी के पुराने नेता और रावत समर्थक खुले शब्दों में भले कुछ न कह रहे हों, पर भीतरखाते में रोष और बेचैनी का माहौल साफ दिखाई दे रहा है।
कांग्रेस की नई प्रदेश कार्यकारिणी में कुमाऊं क्षेत्र के वरिष्ठ नेताओं को अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।
अल्मोड़ा, नैनीताल, पिथौरागढ़, बागेश्वर और चंपावत जैसे जिलों से आने वाले कई सक्रिय और अनुभवी नेताओं को किनारे रख दिया गया है।
पार्टी के कई कार्यकर्ताओं का कहना है कि कुमाऊं ने कांग्रेस को हमेशा मज़बूत जनाधार दिया, पर अब वही क्षेत्र उपेक्षित महसूस कर रहा है।
यह असंतोष आने वाले दिनों में संगठन की जड़ें कमजोर कर सकता है!
देहरादून, हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर इन तीनों मैदानी जिलों का भी प्रतिनिधित्व नई टीम में बेहद कम दिखा।
ये जिले न केवल राज्य की अर्थव्यवस्था का केंद्र हैं, बल्कि कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक भी माने जाते रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मैदान की अनदेखी कांग्रेस के चुनावी गणित को गहरा झटका दे सकती है, क्योंकि राज्य की कुल सीटों में लगभग आधी सीटें इन्हीं जिलों से आती हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की अनदेखी को लेकर कांग्रेस कार्यकर्ताओं में सबसे अधिक नाराज़गी है।
रावत लंबे समय तक पार्टी का चेहरा और राज्य के सबसे लोकप्रिय नेताओं में रहे हैं।
नई टीम में उनके निकटवर्ती नेताओं को या तो प्रतीकात्मक जिम्मेदारियाँ दी गईं या पूरी तरह बाहर रखा गया।
कांग्रेस समर्थकों का कहना है कि यह “राजनीतिक कद की नहीं, बल्कि योगदान की अनदेखी” है।
कई जिलों में कार्यकर्ताओं ने सोशल मीडिया पर खुलकर नाराज़गी भी जाहिर की है।
उत्तराखंड की राजनीति हमेशा क्षेत्रीय संतुलन पर टिकी रही है।
गढ़वाल, कुमाऊं और मैदान इन तीनों हिस्सों का समान प्रतिनिधित्व हर दल की सफलता का आधार रहा है।
लेकिन कांग्रेस की नई टीम में गढ़वाल का पलड़ा भारी दिख रहा है, जबकि कुमाऊं और मैदान दोनों हिस्से हाशिए पर चले गए हैं।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यदि यह असंतुलन जारी रहा, तो कांग्रेस को आगामी चुनावों में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
कांग्रेस समर्थकों का कहना है कि संगठनात्मक पुनर्गठन में “संतुलन और परामर्श” की कमी रही।
मैदानी और कुमाऊं के कार्यकर्ताओं को यह महसूस हो रहा है कि फैसले दिल्ली में बैठे नेताओं के इशारों पर लिए गए हैं, न कि स्थानीय परिस्थिति को देखकर।
कुछ वरिष्ठ नेताओं का यह भी मानना है कि इस तरह की एकतरफा नियुक्तियाँ संगठन की एकजुटता को तोड़ सकती हैं और 2027 विधानसभा चुनाव की तैयारियों पर नकारात्मक असर डाल सकती हैं।
उत्तराखंड कांग्रेस फिलहाल दो मोर्चों पर संघर्ष कर रही है, एक तरफ भाजपा की मजबूत संगठनात्मक पकड़, और दूसरी तरफ अपनी ही आंतरिक खींचतान।
ऐसे में कुमाऊं, मैदान और हरीश रावत की अनदेखी कांग्रेस के लिए आत्मघाती कदम साबित हो सकती है।
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि अगर पार्टी नेतृत्व ने संवाद और समायोजन का रास्ता नहीं अपनाया, तो यह असंतोष आने वाले महीनों में खुली बगावत का रूप भी ले सकता है।
कांग्रेस की नई टीम का उद्देश्य संगठन में नई ऊर्जा लाना था, लेकिन जिस तरह से क्षेत्रीय और नेतृत्वीय संतुलन बिगड़ा है, उसने पार्टी के भीतर असंतोष की आग जला दी है।
कुमाऊं, मैदान और हरीश रावत ये तीन नाम आज सिर्फ असंतोष के प्रतीक नहीं, बल्कि कांग्रेस के खोते जनाधार की चेतावनी बन चुके हैं।
यदि पार्टी ने समय रहते इन भावनाओं को नहीं समझा, तो “नई टीम” आने वाले चुनावों में “नई चुनौती” बन सकती है।

